रविन्द्र कुमार द्विवेदी
दिल्ली नगर निगम चुनाव नजदीक है। पांच साल तक अपनी जनता से दूर रहने वाले निगम पार्षद और टिकट के दावेदार अन्य नेता अब जनता के बीच नजर आने लगे हैं। सड़कों और गलियों के निर्माण के उद्घाटन धड़ाधड़ हो रहा है। जनता का हाल-चाल भी पूछ रहे हैं। कोई भी परेशानी होने पर बेहिचक घर आने का न्यौता दे रहे हैं। नेताओं का जनता प्रेम पांच साल में एक बार ही जागता है।
। चुनाव के समय जनता नेताओ का अपने बीच मंडराती देख समझ गई हैं कि चुनाव उत्सव शुरू हाने वाला है। सुनहरे वादों का सौगात मिलनें वाली है। जनता को वादों से ही संतुष्ट होना पड़ता है। जब मैं ग्यारहवीं कक्षा में था तो हमारे क्लास टीचर हिन्दी के जाने माने विद्वान विज्ञानन्द उनियाल अक्सर कहा करते थे-’अगर काले लोगों में से गोरा इन्सान चुनना हो तो सबसे कम काला इन्सान चुनना चाहिये। यही बात चुनाव के समय नेताओं की जमात पर भी लागू होती है। हमाम में सब बेइमान हैं। इसलिए वोट उसे देना चाहिये,जो सबसे कम बेइमान हो। चुनाव के इस उत्सव में मुझे अपने गुरू के यह उदाहरण रह-रह कर याद आते हैं। फिर मै सोचता हूं कि सबसे कम बेईमान का चयन कर पाना क्या जनता के लिए आसान काम होगा-खैर यह तो एक तथ्य हैं ।
वास्तव में चुनाव लड़ने वाले नेताओं में ईमानदार नेता भी हो सकता है लेकिन धन के अभाव में ईमानदार नेता अपनी पहचान बना ही नहीं पाता। चुनाव लोकतंत्र का सबसे बड़ा उत्सव होता है। लेकिन अब लोकतंत्र से लोक गायब हो रहा है और उसकी जगह धन ले रहा है। धन तंत्र अर्थात धनाड्यों का उत्सव आम आदमी कितना ही योग्य ओर ईमानदार क्यो न हो, वो चुनाव लड़ने के विषय में सोच भी नही सकता। राजनीतिक दलों में भी आम आदमी को टिकट देने का चलन भी न के बराबर है। टिकट वितरण में परदें के पीछे टिकटों की बकायदा बोली लगाई जाती हैं। सबसे उंची बोली लगाने वाले के नाम टिकट पक्का हो जाता है। इसका एक उदाहरण गत विधानसभा चुनाव बुराड़ी विधानसभा में देखने को मिला।
उस दौरान आम जनता की जुबान पर था कि बहुजन समाज पार्टी के एक संभावित दावेदार ने टिकट पाने के लिए क्षेत्र में पार्टी प्रचार में ही लाखों रूपये लगा दिये, और बुराड़ी के अधिकंश घरों में मायावती के तस्वीर के साथ अपनी तस्वीर वाली लाखों रूपये की घड़ियां, कलेंडर तथा डायरी आदि छपवाकर बांट दी।
लेकिन चुनाव के ऐन वक्त पर टिकट किसी अन्य व्यक्ति को दे दिया गया। करोंड़ रूपये खर्च करने के बाद भी बसपा का टिकट हासिल नही हो सका और उन्होंने दूसरे दल के टिकट पर चुनाव लड़ा और हार गये। जीत बसपा की भी हो नही सकी । धनतंत्र का यह खेल लोकतंत्र के लिए बेहद खतरनाक है। इतना धन खर्च करने के बाद टिकट हासिल होता है। फिर उम्मीदवार शराब और उपहार बांटनें मंे अकूत धन खर्च कर देता हैं।
रूपयों से वोटों की खरीद फरोख्त होती है। इसके लिए बाकायदा बंन्द कमरे में मंडियां लगती हैं। एक उम्मीदवार करोड़ो रूपये खर्च कर देता है। चुनाव जीतने के बाद वो पहले तीन गुना वसूल करता है। चुनाव में खर्च करोड़ो रूपये की लागत उतना ही बचत और उतना ही अगले चुनाव में खर्च करने का फिक्स डिपोजिट। अगर उसके बाद बचा तो विकास कार्य होता है। उसमें भी ठेकेदारों की मिलीभगत से खुली लूट खसोट चलती है।
आम नागरिक विवश होकर टकटकी लगाये सारा मंजर देखता है। उससे किये चुनावी वायदे बस वायदों में ही सिमटकर रह जाते हैें। आम जनता बस अपनी उम्मीदों का बोझ लिए भटकती रहती है, जब अगला चुनाव उत्सव आता है और उसे नये नारों में लिपटे फिर वही पुराने वायदे मिलते हैं। अगले पांच साल तक फिर से उम्मीदों का बोझ ढोने के लिए। हैरतअंगेज तथ्य है कि दिल्ली के आधे से ज्यादा पार्षद विकास निधि में मिलने वाला फण्ड का पूरा इस्तेमाल तक नही कर पाये हैं। जब फण्ड इस्तेमाल ही नही होगा तो विकास और खुशहाली कहां से आयेगी। फण्ड का इस्तेमाल क्यों नही हो पाया, यह शोध का विषय हो सकता है।
मेरे नजरिये से फण्ड का पूरा इस्तेमाल न कर पाने वाले पार्षद को मालूम नही होता कि उनके निर्वाचन क्षेत्र में कहां-कहां विकास की गुंजाइश है संभवतः उन्हें यह भी मालूम नही होगा कि वो किन-किन मुद्दो पर अपने फण्ड का इस्तेमाल कर सकते हैं?
कौन-कौन से कार्य उनके अधिकारों के दायरे में आते है। ऐसा भी हो सकता है कि यह सब पार्षदों के संज्ञान में होगा, लेकिन लापरवाही के कारण वो फण्ड का पूरा इस्तेमाल नहीं कर पाये होंगे। ऐसा ही एक कारण शेष बचे फण्ड से होने वाले कार्य में उनका हिस्सा मिलने की गुंजाइश न के बराबर होगी और उनमें उन्होंने अपने फण्ड का इस्तेमाल करना उचित न समझा होगा? ऐसे ही अन्य संभावित कारण भी गिनाये जा सकते हैं। कारण जो भी हो विकास निधि का पूरा फण्ड इस्तेमाल न कर पाना मतदाताओं से गहरा विश्वासघात माना जा सकता है। मतदाता पार्षद को अपना वोट देकर निर्वाचित करता है कि सरकार के खजाने में उसकी जेब से जमा होने वाले टैक्स का खजाना वापस पार्षद अथवा अन्य निर्वाचित जनप्रतिनिधियों के माध्यम से नागरिक सुविधाओं पर खर्च हो। आमतौर पर ऐसा हो कहां पा रहा है?
मेरे नजरिये से विकास निधि का फण्ड पूरा इस्तेमाल करने में असमर्थ रहने वाले जनप्रतिनिधियों पर 6 साल तक चुनाव लड़ने पर रोक लगा देनी चाहिये। यह भी सुनिश्चित होना चाहियेें कि ऐसे दागी निर्वाचित जनप्रतिनिधि के किसी निकट या दूर के रिश्तेदारो को चुनाव लड़ने से रोका जाना चाहिये, अन्यथा दागी जनप्रतिनिधि कुर्सी गंवाने के बाद उसके माध्यम से भी अपनी कारगुजारियों को अंजाम देने की कोशिश कर सकता है?
यह तो मात्र मेरा नजरिया हैे। शासन का मेरे नजरिये से सहमत होना जरूरी नही, लेकिन मतदाताओं को यह बात जरूर समझ आनी चाहिये कि उनका हित और अहित कहां है, और उनको इससे सहमत होने की आवश्यकता है। नगर निगम चुनाव में पुनः अपनी पार्टी के टिकट पर, अन्य पार्टी के टिकट पर अथवा निर्दलीय रूप से पार्षद चुनाव लड़ते हैं तो आम जनता को उनसे पिछले पांच साल के आय-व्यय का ब्यौरा मांगना चाहिये । उनके ब्यौरे से संतुष्ट न होने पर उसका सामूहिक सार्वजनिक बहिष्कार का फैसला आम जनता का सबसे बड़ा हित साबित हो सकता है। उससे भी बड़ा हित तब होगा, जब जनता क्षेत्रवाद, भाषावाद और जातिवाद के प्रभाव में आये बिना योग्य और ईमानदार प्रत्याशी के पक्ष में फैसला करेगी।
अक्सर मतदाता क्षेत्रवाद, भाषावाद और जातिवाद के प्रभाव में आकर वोट डालता है और बाद में अपने आपको ठगा हुआ और असहाय महसूस करता है। सबसे कम काला इन्सान ही काले इंसानो की दुनियां में सबसे गोरा इंसान माना जाता है। मतदाताओं को अपने क्षेत्र के सभी उम्मीदवारों को परखना चाहिये। परखने के लिए उसे कुछ मापदण्डों को अपनाना होगा।
सबसे पहले उसकी शिक्षा, उसके आचरण और उसके अतीत को खंगालना बेहद जरूरी है। जिस उम्मीदवार का अतीत जरा भी भ्रष्टाचार या अपराध में लिप्त है तो वो आम जनता के लिए हितकारी नही हो सकता। वैसे यह बड़ी जटिल समीक्षा होगी, जिस पर आम नागरिकों का खरा उतरपाना बेहद मुश्किल साबित हो सकता है।
इसमे गैर सरकारी संगठन समाजसेवी संगठन और स्वयंसेवी संगठन आम नागरिकों की सहायता में आगे आये तो किसी हद तक सकारात्मक परिणम मिलने की उम्मीद बंध सकती है। अगर मतदाता यह ठान ले कि जो उम्मीदवार चुनाव में सबसे कम पैसा खर्च करेगा, वही उनके वोट का असली हकदार होगा तो न केवल ईमानदार और योग्य पार्षद निर्वाचित होंगे, वरन वो विकास और नागरिक सुविधाओं को मुहैया कराने में भी बेहतर साबित हो सकते हैं। इसमे भ्रष्टाचार और मंहगाई पर लगाम तो लगेगी ही, आम जनता भी खुशहाल बनेगी ।
आम जनृता को नागरिक सुविधायें दिलवाना और उनके जीवन को खुशहाल बनाना ही चुनाव का वास्तविक उद्देश्य होता है। तो आइये, इस पवित्र उद्देश्य को पूरा करने का प्रण लें और दागी, अपराधी, शराब और रूपया बांटने वाले भ्रष्टाचार में लिप्त और अकूत धन चुनाव प्रचार में खर्च करने वाले उम्मीदवारों का बहिष्कार करें और धनतंत्र को पुनः लोकतंत्र में स्थापित करें।
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